॥दोहा॥
जय जय श्री जगत पति जगदाधार अनन्त ।
विश्वेश्वर अखिलेश अज सर्वेश्वर भगवन्त ॥
॥चौपाई॥
जय जय धरणीधर श्रुति सागर । जयति गदाधर सद्गुण आगर ।
श्री वसुदेव देवकी नंदन । वासुदेव नाशन भव फन्दन ॥
नमो नमो सचराचर स्वामी । परंब्रह्म प्रभु नमो नमो नमामि ।
नमो नमो त्रिभुवन पति ईश । कमलापति केशव योगीश ॥
गरुड़ध्वज अज भव भय हारी । मुरलीधर हरि मदन मुरारी ।
नारायण श्रीपति पुरुषोत्तम । पद्मनाभि नरहरि सर्वोत्तम ॥
जय माधव मुकुन्द वनमाली । खल दल मर्दन दमन कुचाली ।
जय अगणित इन्द्रिय सारंगधर । विश्व रुप वामन आन्नद कर ॥
जय जय लोकाध्यक्ष धनंजय । सहस्त्रज्ञ जगन्नाथ जयति जय ।
जय मधुसूदन अनुपम आनन । जयति वायु वाहन वज्र कानन ॥
जय गोविन्द जनार्दन देवा । शुभ फल लहत गहत तव सेवा ।
श्याम सरोरुह सम तन सोहत । दर्शन करत सुर नर मुनि मोहत ॥
भाल विशाल मुकुट सिर साजत । उर वैजन्ती माल विराजत ।
तिरछी भृकुटि चाप जनु धारे । तिन तर नैन कमल अरुनारे ॥
नासा चिबुक कपोल मनोहर । मृदु मुस्कान कुञ्ज अधरन पर ।
जनु मणि पंक्ति दशन मन भावन । बसन पीत तन परम सुहावन ॥
रुप चतुर्भज भूषित भूषण । वरद हस्त मोचन भव दूषण ।
कंजारुन सम करतल सुन्दर । सुख समूह गुण मधुर समुन्दर ॥
कर महँ लसित शंख अति प्यारा । सुभग शब्द जै देने हारा ।
रवि सम चक्र द्वितीय कर धारे । खल दल दानव सैन्य संहारे ॥
तृतीय हस्त महँ गदा प्रकाशन । सदा ताप त्रय पाप विनाशन ।
पद्म चतुर्थ हाथ महँ धारे । चारि पदारथ देने हारे ॥
वाहन गरुड़ मनोगतिवाना । तिहुँ त्यागत जन हित भगवाना ।
पहुँचि तहाँ पत राखत स्वामी । हो हरि सम भक्तन अनुरागी ॥
धनि धनि महिमा अगम अन्नता । धन्य भक्तवत्सल भगवन्ता ।
जब जब सुरहिं असुर दुख दीन्हा। तब तब प्रकटि कष्ट हरि लीन्हा ॥
सुर नर मुनि ब्रहमादि महेशू । सहि न सक्यो अति कठिन कलेशू ।
तब तहँ धरि बहुरुप निरन्तर । मर्द्यो दल दानवहि भयंकर ॥
शय्या शेष सिन्धु बिच साजित । संग लक्ष्मी सदा विराजित ।
पूरन शक्ति धन्य धन खानी । आन्नद भक्ति भरणी सुख दानी ॥
जासु विरद निगमागम गावत । शारद शेष पार नहीं पावत ।
रमा राधिका सिय सुख धामा । सोही विष्णु कृष्ण अरु रामा ॥
अगणित रुप अनूप अपारा । निर्गुण सगण स्वरुप तुम्हारा ।
नहिं कछु भेद वेद अस भासत । भक्तन से नहिं अन्तर राखत ॥
श्री प्रयाग दुवाँसा धामा । सुन्दरदास तिवारी ग्रामा ।
जग हित लागि तुम्हिं जगदीशा । निज मति रच्यो विष्णु चालीसा ॥
जो चित्त दै नित पढ़त पढ़ावत । पूरन भक्त्ति शक्ति सरसावत ।
अति सुख वसत रुज ऋण नाशत । वैभव विकासत सुमति प्रकाशत ॥
आवत सुख गावत श्रुति शारद । भाषन व्यास वचन ऋषि नारद ।
मिलत सुभग फल शोक नसावत ।अन्त समय जन हरि पद पावत ॥
॥दोहा॥
प्रेम सहित गहि ध्यान महँ हृदय बीच जगदीश ।
अर्पित शालिग्राम कहँ करि तुलसी नित शीश ॥
क्षणभंगुर तनु जानि करि अहंकार परिहार ।
सार रुप ईश्वर लखै तजि असार संसार ॥
सत्य शोध करि उर गहै एक ब्रह्म ओंकार ।
आत्मबोध होवै तबै मिलै मुक्त्ति के द्वार ॥
शान्ति और सद्भाव कहँ जब उर फूलहिं फूल ।
चालिसा फल लहहिं जहँ रहहिं ईश अनुकूल ॥
एक पाठ जन नित करै विष्णु देव चालीस ।
चार पदारथ नवहुँ निधि देय द्वारिकाधीश ॥